Thursday, December 31, 2020
अलविदा 2020
Wednesday, December 23, 2020
लम्बी रात
Friday, December 11, 2020
भाषा
Tuesday, September 29, 2020
बेटी
Wednesday, September 16, 2020
न्यायपालिका और हिंदी
Monday, September 14, 2020
हिंदी दिवस
Wednesday, September 9, 2020
विश्व आत्महत्या निरोध दिवस 10सितम्बर 2020
Saturday, September 5, 2020
शिक्षक
Wednesday, September 2, 2020
वर्तमान समय में मिडिया
Sunday, August 30, 2020
आंसू
जख्म
Wednesday, August 26, 2020
जीवन
Saturday, August 22, 2020
मोहब्बत का सूरज
Sunday, August 9, 2020
मजदूर
इश्क
मैं जैसी हूं
मेरी दुनिया
सफर
चरित्रहिनता
समाज में चरित्रहीनता है.
प्यार में धोखा खाई लड़की ।
अस्तित्व
तुम लड़ना
अपने अस्तित्व के लिए
तुम प्रकृति को मानते हो
अपना अस्तित्व
तुम अशिक्षित हो इस लिए
तुम करते हो प्रकृति की पूजा
हम शिक्षित होकर
कर रहे हैं ,प्रकृति का दोहन
अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए ।
जब तक तुम्हारा अस्तित्व हैं
तब तक ये जंगल आबाद रहेंगे ।
एक दिन
शहरी भेड़िया
दौड़ते हुए ,
जंगल में
घुस जायेगा ।
कर देगें
तहस-नहस
अपने स्वार्थ के लिए
जंगल को ।
शहरी भेड़िया
देखकर जंगल की सम्पदा
जल,जमीन ,खनिज
हो जायेगा हिंसक ।
करने लगेगा ,
प्रकृति का बलात्कार
अपने स्वार्थ और एशो-आराम के लिए ।
शहरी भेड़िया
मचा देगा
तुम्हारे शांत जंगल में
आतंक ।
वो तहस नहस करेगा
तुम्हारा आशियाना
तुम्हारी नस्लें।
तुम उठा लेना
अपना हथियार
खुद को,
प्रकृति को
तुम्हारी नस्लों को बचाने के लिए ।
तुम लड़ना
प्रकृति ,अपने अस्तित्व के लिए ।
शहरी भेड़िया
हार कर भागेगा
शहर की तरफ
वो अहंकार में अंधा
स्वीकार कर नहीं पायेगा,
अस्तित्व और स्वार्थ में
अस्तित्व की जीत को ।
वो विचलित हो ,
तुम्हें जंगली ,असभ्य के साथ ,
कर देगा आतंकी घोषित ।
प्रियंका चौधरी परलीका
Thursday, July 30, 2020
टिड्डी प्रकोप से परेशान किसान
Monday, July 20, 2020
मजदूर - कविता
कोई धर्म
कोई जाति।
मजदूर समझता है,
कर्म को धर्म,
रोटी को जाति।
मजदूर करता है,
अपने लिए,
अपने परिवार के लिए
दिन रात मेहनत।
उसे नहीं पड़ता फर्क,
उसके मालिक के धर्म से।
उसे करना है कर्म।
मजदूर को चाहिए,
सिर्फ काम।
मालिक राम हो चाहे रहीम
मालिक भी कब देखता है,
किसी मजदूर की जाति,
उसे तो वो मजदूर चाहिए,
जो दो रूपये कम लेता है।
मजदूर का नहीं होता कोई धर्म
समझता है काम को अपना धर्म।
धर्म और जाति नहींं आई
गरीब के हिस्से।
गरीब के हिस्से आई है सिर्फ मेहनत।
धर्म और जाति
अमीरों के हिस्से आई है।
जब चाहे करवा सकते हैं।
जाति धर्म पर दंगे।
करवा कर दंगे
छुप जाते हैं घरों में।
और बेमौत मारे जाते हैं ,
मजदूर,
जिनके घर आये ही नहीं,
कभी जाति और धर्म।
आज आये तो मौत बनकर।
प्रियंका चौधरी परलीका
9/05/2020
हमारे सपने
व्यक्ति का जीवन कुछ सपनों व वजह के कारण ही रोचक व क्रियाशील होता है। वजह होने पर ही व्यक्ति वक्त के साथ दौड़ता है और वक्त से आगे भी निकलकर कुछ नया कर जाता है।
कुछ लोगों के पास सपने तो होते है पर सपनों को पूरा करने की वजह नहीं होती। ऐसे लोग वक्त के साथ दौड़ते तो नहीं पर कदमताल जरूर करते हैं, और जीवन में कदमताल करते हुए थककर , सपने के साथ, वक्त के किसी मोड़ पर रूक जाते हैं, ठहर जाते हैं। जीवन में ठहराव चाहते हैं और सोचते हैं काश, वक्त भी रुक जाये, पर समय ना तो किसी का इंतजार करता है और ना ही रुकता।
समय को ठहरना पसन्द नहीं। समय के पास आगे बढ़ने की शायद बहुत सारी वजह होती है।इसी ठहराव के कुछ समय बाद लगभग ऐसे सभी व्यक्तियों को आगे बढ़ाने व सपना पूरा करने ही वजह मिल जाती है। ऐसे व्यक्तियों के सपने अपने व वजह कोई और होते हैं।
ठहराव के समय किसी के कंधे पर जिम्मेदारी आ जाती है तो किसी के जीवन में मुहब्बत का आगमन हो जाता है। किसी को अपने साथ वाले से प्रतिस्पर्धा हो जाती है। हर व्यक्ति को सपना पूरा करने की वजह मिल जाती है ।वजह के साथ अपना सपना पूरा होने का अहसास ही अलग होता है।
जीवन में ठहराव भी जरूरी है।
वजह की तलाश करो,सपने पूरा करने की पहली मंजिल वजह है।
🖇🖊प्रियंका चौधरी
माँ की छाया- कविता
जिसकी आगोश में बच्चे महफूज रहते हैं ।
पिता तना है ,
उसी पेड़ का ।
जिसकी छाया में बच्चे महफूज रहते हैं ।
मां का प्यार ,
छाया की शीतल में ,
बच्चे महसूस कर जाते हैं ।
पिता का प्यार ,
तने की कठोरता में ,
छुपा रह जाता है ।
मां रूपी छाया का अस्तित्व,
पिता रूपी तने में ,
छुपा रह जाता है ।
प्रियंका चौधरी
परछाई - कविता
सुकुन देता हैं,
अपनी परछाई देखना
अपनी परछाई से बातें करना ।
कुछ बातें…
जो हमारे दिमाग में होती है ,
दिल कहने नहीं देता ।
कुछ बातें …
हमारे दिल में होती है,
दिमाग कहने नहीं देता।
दिल-दिमाग की कसमकस में ,
कभी कभी वो बातें ,
हम अपनी परछाई से कर लेते हैं ।
मुझे सुकुन देता है ,
अपनी परछाई से,
बतियाना….गुनगुनाना
बहुत सारी बातें
मैं करना चाहती हूं साझा ,
दुनिया से ।
किसी अजीज से !
पर कर नहीं सकती ,
मुझे डर लगता है ।
मैं डरपोक हूं ।
मैं दुनिया की तरह नहीं सोचती ।
वो हर हाल में मुझे ग़लत समझेगी ।
कुछ बातें मुझे कमजोर
कुछ बातें मुझे पागल बनाती है,
कुछ बातें दीवाना ।
मुझे डर नहीं लगता
दुनिया मुझे पागल, दीवाना, कमजोर समझे।
फिर भी मैं डरपोक हूँ। ।
मुझे पसंद नहीं …
दुनिया में ,
पागल, कमजोर, दीवाना कहलाना ।
मुझे पसंद नहीं
ये दुनिया ,
मेरे नाम के अलावा
किसी और नाम से पुकारे ।
मुझे नाम , पहचान से डर लगने लगाना है ।
नाम देकर ,छिन लेती है ये दुनिया आजादी ।
मैं बेटी हूं ,
पहले ही समाज ने नाम देकर ,
जकड़ा रखा है मुझे बेडीयों में।
प्रियंका चौधरी परलीका
एम. ए. (हिन्दी साहित्य)
विधि स्नातक (अध्ययनरत)