Monday, July 20, 2020

परछाई - कविता

कभी कभी
सुकुन देता हैं,
अपनी परछाई देखना 
अपनी परछाई से बातें करना ।

कुछ बातें…
जो हमारे दिमाग में होती है ,
दिल कहने नहीं देता ।
कुछ बातें …
हमारे दिल में होती है,
दिमाग कहने नहीं देता।

दिल-दिमाग की कसमकस में ,
कभी कभी वो बातें ,
हम अपनी परछाई से कर लेते हैं ।

मुझे सुकुन देता है ,
अपनी परछाई से,
बतियाना….गुनगुनाना

बहुत सारी बातें 
मैं करना चाहती हूं साझा ,
दुनिया से ।
किसी अजीज से !
पर कर नहीं सकती ,
मुझे डर लगता है ।
मैं डरपोक हूं ।

मैं दुनिया की तरह नहीं सोचती ।
वो हर हाल में मुझे ग़लत समझेगी ।
कुछ बातें मुझे कमजोर
कुछ बातें मुझे पागल बनाती है,
कुछ बातें दीवाना ‌।


मुझे डर नहीं लगता 
दुनिया मुझे पागल, दीवाना, कमजोर समझे।

फिर भी मैं डरपोक हूँ। ।


मुझे पसंद नहीं …
दुनिया में ,
पागल, कमजोर, दीवाना कहलाना ।

मुझे पसंद नहीं 
ये दुनिया ,
मेरे नाम के अलावा
किसी और नाम से पुकारे ।

मुझे नाम , पहचान से डर लगने लगाना है ।
नाम देकर ,छिन लेती है ये दुनिया आजादी ।
मैं बेटी हूं ,
पहले ही समाज ने नाम देकर ,
जकड़ा रखा है मुझे बेडीयों में।
प्रियंका चौधरी परलीका
एम. ए. (हिन्दी साहित्य)
विधि स्नातक (अध्ययनरत)

1 comment:

  1. बहुत खूब लिखा है । 👌👌
    बेटी अपने जज़्बात सब के आगे बयान नहीं कर सकती ।
    यह बेचारी तो खुल के सांस भी नहीं ले सकती
    अपने विचार कहा से बयान करेगी

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